
प्रजातंत्र की रणभूमि मे,
विगुल कभी बज सकता है ।
कौटिल्य के “शतरंज”मे,
“गो”की नीति भी चल सकता है।
वादों के प्रचार में,
विवादों का प्रपंच चल सकता है।
नैतिकता के अभाव मे,
जोर उदंडता का चल सकता है।
प्रतिपल झूठ की बयार मे,
जीत सही को मिल सकता है।
निश्चितता भी एक आस मे,
अनिश्चितता का आड़ ले सकता है।
जय जयकार के सूद मे,
युद्धनीति भी चल सकता है।
जब पड़ोगे इस युद्धनीति मे,
विचार- रक्त भी बह सकता है।
हार-जीत के बाद भी इसमे,
सहचर्य रह सकता है।
जहां रंगे विरोधी एक ही रंग मे,
यह केवल प्रजातंत्र मे ही हो सकता है।